ऐसा लगता है कि ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ टाइप की कार्रवाइयों को लेकर भाजपा की किस्मत में उस ‘यश’ का भागी होना लिखा ही नहीं है, जो वह हर बार लेना चाहती है। हाल के अतीत में मुझे ऐसी तीन कार्रवाइयां याद आती हैं जो भाजपा शासन के दौरान हुईं, लेकिन इनमें पार्टी, उसके नेताओं या शासन प्रमुखों को सराहना अथवा यश मिलने के बजाय आलोचना और आरोपों का शिकार होना पड़ा।
इन कार्रवाइयों में पहली नरेंद्र मोदी सरकार बनने के एक साल बाद नौ जून 2015 को हुई थी, जब भारतीय सेना ने मणिपुर के चंदेल इलाके में नगा विद्रोहियों द्वारा 18 सैनिकों को घात लगाकर मार दिए जाने का बदला लेते हुए म्यांमार सीमा में घुसकर 38 नगा घुसपैठियों को मार गिराया था।
दूसरी कार्रवाई भारतीय सेना ने हाल ही में 28 सितंबर को की थी। जम्मू कश्मीर के उरी क्षेत्र में पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा सेना के शिविर पर 18 सितंबर को हमला कर 19 भारतीय जवानों की हत्या कर दिए जाने का बदला लेते हुए भारतीय सेना के कमांडो ने पाक अधिकृत कश्मीर में घुसकर कई आतंकवादी ठिकानों को ध्वस्त कर दिया था। इस कार्रवाई में बड़ी संख्या में आतंकवादियों के अलावा पाकिस्तानी सैनिकों के मारे जाने का दावा किया गया था।
और ऐसी ही एक कार्रवाई हमारे अपने मध्यप्रदेश में 31 अक्टूबर को राजधानी भोपाल में हुई, जब भोपाल सेंट्रल जेल से दीवाली की रात एक हेड कांस्टेबल का गला रेतकर फरार हुए आतंकवादी संगठन सिमी के आठ आतंकवादियों को भोपाल पुलिस और एटीएस ने मिलकर चंद घंटों के भीतर मार गिराया।
इन तीनों घटनाओं में मारे गए लोग या तो आतंकवादी थे या फिर आतंकवादी गतिविधियों से जुड़े अपराधों में लिप्त थे। लेकिन न तो मोदी सरकार को म्यांमार और पीओके में हुई सर्जिकल स्ट्राइक का ‘यश’ मिला और न ही शिवराज सरकार को सिमी आतंकवादियों के खिलाफ की गई कार्रवाई का ‘यश’ मिल पा रहा है। ये कार्रवाइयां हमारी सेना या पुलिस की उपलब्धि के बजाय राजनीतिक विवाद का केंद्र बनकर रह गईं हैं।
भोपाल सेंट्रल जेल की घटना को लेकर ‘राजनीतिक घसीटेबाजी’ होगी, यह बात तो सोमवार को ही साफ नजर आने लगी थी। और सोमवार को जो बात कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और सबसे बड़बोले नेता दिग्विजयसिंह ने दबी जुबान से कही थी, मंगलवार को वही बात उन्होंने खुलकर कही। दिग्विजय ने सवाल उठाया कि आखिर जेल से मुस्लिम कैदी ही क्यों भागते हैं, हिंदू कैदी क्यों नहीं? बयान देने में बसपा सुप्रीमो मायावती भी पीछे नहीं रहीं, उन्होंने व्यापमं घोटाले का हवाला देते हुए मध्यप्रदेश पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाया और सिमी मामले की न्यायिक जांच की मांग कर डाली। ऐसे मामलों पर मुंह खोलने के लिए हमेशा तैयार बैठे रहने वाले अरविंद केजरीवाल और असदुद्दीन ओवैसी भी इसी लाइन पर बोले। यानी भोपाल की घटना के बहाने राजनीतिक दलों ने उत्तरप्रदेश में राजनीतिक लाभ की बोटी तलाशना शुरू कर दिया है। संकेतों में भाजपा पर यह आरोप है कि उसने उत्तरप्रदेश चुनाव में राजनीतिक लाभ लेने के लिए मुस्लिम अपराधियों का एनकाउंटर करवा डाला। याद रहे, पीओके में सेना द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर भी भाजपा पर राजनीतिक लाभ लेने का आरोप लगाया गया था।
यानी देश में अब यह तय हो गया है कि अपराधियों और आतंकवादियों की पहचान धर्म या संप्रदाय के आधार पर होगी। उन्हें उनके अपराधों की सजा दिलाने की प्रक्रिया भी यह देखकर तय की जाएगी कि उससे राजनीतिक तिजोरी में कितना माल आने वाला है। कहने को दिग्विजयसिंह जैसे नेता खुद कई बार कह चुके हैं कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता। लेकिन जब भी मौका आता है उन्हें आतंवादियों या अपराधियों में हिंदू, मुसलमान दिखने लगता है।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह पर पलटवार करते हुए उठाया गया यह सवाल बहुत मौजूं है कि इन नेताओं को अपराधियों से तो हमदर्दी है, लेकिन उन्हें शहीद होने वाले हमारे जवान क्यों नजर नहीं आते। शिवराज के अलावा भाजपा के कई केंद्रीय नेताओं ने भी इसी तर्ज पर विपक्षी दलों की आलोचना की है।
पर मुख्य सवाल यह है कि आखिर अपराधियों या आतंकवादियों पर सख्त कार्रवाई करने के बावजूद भाजपा और उसकी सरकारें इन कार्रवाइयों को स्वाभाविक तौर पर जनता के गले क्यों नहीं उतरवा पातीं? दरअसल सारा मामला बड़बोलेपन का है। इसी बड़बोलेपन ने हमें म्यांमार में मुश्किल में डाला और इसी ने पीओके में। और अब अपनी ही धरती पर इसके कारण मप्र सरकार की फजीहत हो रही है। भोपाल में हुआ एनकाउंटर असली है या फर्जी यह तो बाद में तय होगा, लेकिन एक बात तो तय है कि इतनी बड़ी कार्रवाई करने के बाद पुलिस, सरकार या राजनीतिक नेतृत्व में इस बात की कोई समझ ही नहीं दिखी कि घटना के बाद का प्रबंधन कैसे किया जाए। यही वजह रही कि अफसर हो या राजनेता जिसके जो मन में आया उसने वो बयान दिए। उन ऊलजलूल, गैर जिम्मेदार और विरोधाभासी बयानों से ऐसा रायता फैला है कि अब किसी से समेटते नहीं बन रहा। मुझे लगता है पहली जरूरत इस बात की है कि भाजपा नेतृत्व अपने नेताओं और अपनी सरकार के अफसरों को हर बात पर मुंह खोलने के बजाय, चुप रहना सिखाए तो उसका ज्यादा भला होगा।