शायद यह संयोग ही है कि इन दिनों घटनाएं ही कुछ ऐसी हो रही हैं कि मुझे सोशल मीडिया और उसके बहाने सामाजिक मनोदशाओं को समझने और एक पत्रकार के नाते खुद को अपडेट करने का लगातार मौका मिल रहा है। मेरा मानना है कि सोशल मीडिया की अति सक्रियता वाले इस समय में यदि आप घटनाओं से ज्यादा उन पर आने वाली प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण करें तो आपको बहुत कुछ जानने सीखने को मिल सकता है।
ऐसा ही एक वाकया 5 जुलाई को मेरी एक फेसबुक पोस्ट से जुड़ा है। दरअसल मैंने ट्विटर पर टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर देखी जो कहती थी कि झारखंड पुलिस ने मदर टेरेसा द्वारा स्थापित मिशनरीज ऑफ चैरिटी से जुड़ी दो नन और एक महिला को बच्चे बेचने के मामले में हिरासत में लिया है। मैंने उस खबर को फेसबुक पर पोस्ट करते हुए लिखा- ‘’अब देखते हैं इस पर कौन कौन बोलता है…’’
इस पर कई मित्रों ने अपनी प्रतिक्रियाएं दीं। लेकिन इनमें दविंदर कौर उप्पल जी की प्रतिक्रिया थोड़ी भिन्न थी और उसने मुझे और अधिक सोचने पर मजबूर किया जिसके लिए मैं उनका धन्यवाद करता हूं। दविंदर कौर जी मीडिया की शिक्षिका रही हैं और प्रगतिशील विचारों वाली विदुषी के रूप में मैं उन्हें जानता हूं।
उन्होंने लिखा- ‘’बात किसी के बोलने या नहीं बोलने से अधिक यह है कि खबर बताने वाले साथी अपने फेसबुक दोस्तों को उकसा रहे हैं। यह अफवाह फैलाने वाली शैली है। खैर मामले की सही जांच हो और अपराधी को दंडित किया जाये। मैंने चार साल सरगुजा में एक कैथोलिक मिशनरी की संस्था में नौकरी की है। वे दूध के धुले नहीं थे,पर पूरी कालिमा भी नहीं थी।…’’
मेरा मानना है कि दविंदर जी ने जो विषय उठाया है वह बौद्धिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर बहस की मांग करता है। इस खबर में पहला या मूल पक्ष टाइम्स ऑफ इंडिया है। चूंकि मेरे पास उसकी खबर को कन्फर्म करने का कोई जरिया नहीं है इसलिए मैं एक पत्रकार होने के नाते यह मानकर चलता हूं कि यह अफवाह नहीं होगी और अखबार ने देखभाल कर ही यह खबर दी होगी। खबर में सचाई का अंश है यह बात उस इलाके में काम करने वाले एक्टिविस्ट पत्रकार पुष्यमित्र भी स्वीकार करते हैं…।
लेकिन इस मामले में ‘उकसाए’ जाने वाले कमेंट पर मुझे लगता है थोड़ी बात जरूर होनी चाहिए। दविंदर कौर जी ने इन ‘उकसने’वाले लोगों का खुलासा नहीं किया लेकिन उनकी टिप्पणी से ठीक पहले अभय कुमार मिश्रा की टीप वह खुलासा करती है। उनके कमेंट का लब्बोलुआब यह है कि जल्दी ही कुछ भगवाई यह पोस्ट निकालने वाले हैं कि क्रिश्चियनों से जुड़े इस मामले पर कितने कांग्रेसियों, कम्युनिस्टों और बुद्धिजीवियों ने कितने कमेंट किए…
मैंने इन दोनों लोगों के कमेंट्स के बाद अपनी पोस्ट को खंगाला तो पाया कि मेरी पोस्ट डलने के 33 घंटे बाद (यह कॉलम लिखे जाने के समय तक) भी ऐसी कोई पोस्ट ‘उस पक्ष’ की तरफ से नहीं आई है जिस पर इस मामले को लेकर उकसाने वाली कार्रवाई का अंदेशा जताया गया।
मेरा सवाल सिर्फ इतना सा है कि हम, जिनका शुमार बुद्धिजीवियों में किया जाता है, क्या हम भी ऐसी घटनाओं को कथित विचार या संप्रदाय की बाड़ाबंदी से अलग करके नहीं देख पा रहे हैं? मैंने यह सवाल मंदसौर की घटना को लेकर सोशल मीडिया पर चले घमासान के दौरान भी उठाया था और पूछा था कि हम एक अपराधी को सजा दिलाना चाहते हैं या किसी हिन्दू अथवा मुसलमान को…
जब हम ऐसी घटनाओं को लेकर ऐसे कमेंट करते हैं तो क्या हम स्वयं लोगों को नहीं उकसा रहे होते कि वे आएं और उसी लाइन पर बात करें जिस पर उनके विरोधी पक्ष को बात आगे बढ़ाने का मौका मिल सके? मेरे हिसाब से समस्या यही है… हम खबरों को इस पक्ष या उस पक्ष की बाड़ेबंदी में देखने और उसी हिसाब से उसका ट्रीटमेंट करने के आदी हो गए हैं।
दविंदर कौर जी ने एक कैथोलिक मिशनरी संस्था का जिक्र करते हुए बहुत अच्छी बात कही कि ”वे दूध के धुले नहीं थे,पर पूरी कालिमा भी नहीं थी” लेकिन उनकी इसी बात को यदि आधार बनाया जाए तो क्या हम दावे के साथ यह कहने को तैयार हैं कि, जो पक्ष हमारी शंका के दायरे में है उसके बारे में भी पूरी दमदारी से यही बात कह सकते हैं?
झारखंड प्रसंग को लेकर जिस ‘पक्ष’ पर मामले को तूल देने की शंका जताई जा रही है क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वहां भी लोग दूध के धुले न हों पर पूरी कालिमा भी न हो? दरअसल यह पूरा झमेला ‘सब्जेक्टिव बाड़ेबंदी’ का है। जो लोग इस ‘सब्जेक्टिव बाड़ेबंदी’ से ऊपर सोच रहे हैं वे शायद कॉमरेड बादल सरोज की ही तरह कहेंगे कि ”इसमें बोलने वालों का इंतजार करने की बजाय सीधे धड़ाके से सख्त कार्यवाही होनी चाहिए”
कुछ ऐसी ही बात सामाजिक कार्यकर्ता सचिन जैन भी कर रहे हैं। दरअसल मैंने वर्तमान सामाजिक और मीडिया हालात को ध्यान में रखते हुए जानबूझ कर यह सवाल उठाया था कि अब देखते हैं इस पर कौन कौन बोलता है। मेरे हिसाब से दिक्कत यह है कि हम बहुत से मामलों में चीजों को आरोपित करने लगे हैं…
और जब हमारी प्रतिक्रिया से ऐसा लगने लगता है कि हम ‘ऑब्जेक्टिव’ नहीं बल्कि ‘सब्जेक्टिव’ होकर बात कर रहे हैं तो, उस‘पक्ष’ को जिसकी ओर इंगित किया गया है, यह कहने का मौका मिलता है कि जब दूसरे करते हैं तब तो आप नहीं बोलते…(ठीक वही बात जिसकी आशंका अभय कुमार मिश्रा ने व्यक्त की)
हमारे इस रवैये का दुष्परिणाम क्या हो रहा है? सहज मानवीय स्वभाव के कारण बहुतांश में लोग इस तर्क (अथवा कुतर्क) से प्रभावित हो रहे हैं कि ‘उस समय तो कोई नहीं बोलता’… और फिर ट्रोलिंग और हिंसक प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो जाता है। ऐसे में यदि उस पक्ष से हिंसक या अतिरंजित प्रतिक्रियाएं आ रही हैं तो क्या कहीं न कहीं उसका कारण हमारा ऐसा व्यवहार भी नहीं है?
हो सकता है मेरा ऐसा सोचना गलत हो, लेकिन मैं चाहूंगा कि विवेकशील लोगों को इस पर भी बात और बहस करनी चाहिए… और खासतौर से उन लोगों को जो मीडिया से जुड़े हैं, क्योंकि मेरा हमेशा से मानना रहा है कि मीडिया में काम करने वाले की व्यक्तिगत आस्थाएं चाहे किसी भी विचार के साथ हों, उसके काम में वे कहीं भी पक्षधर होकर परिलक्षित नहीं होनी चाहिए।
मीडिया के लिए ईसाई मिशनरी और वनवासी कल्याण परिषद दोनों समान हैं… यदि कहीं कुछ गलत हुआ है तो वह गलत है चाहे फिर वह किसी ने भी किया हो। इसका गलत तो गलत नहीं या थोड़ा गलत है और उसका गलत पूरी तरह गलत है… इसी धारणा के चलन ने हालात को और अधिक बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है…