गिरीश उपाध्याय
चुनावी राजनीतिपर नजर रखने वाले जानते और कहते भी रहे हैं कि उपचुनावों में सत्तारूढ़ दल ही फायदे में रहता है। इसके पीछे कारण जो भी रहते हों लेकिन चुनावी राजनीति में उपचुनाव का यह गणित अब तक काफी कुछ इसी धारणा के अनुरूप आचरण करता रहा है। मध्यप्रदेश में हुए लोकसभा के एक और विधानसभा के तीन उपचुनावों को भी इसी नजर से देखा जा सकता है। सत्तारूढ़ भाजपा ने खंडवा लोकसभा सीट के अलावा विधानसभा की दो सीटें जोबट व पृथ्वीपुर जीत लीं जबकि रैगांव की सीट कांग्रेस की झोली में गई।
पर सवाल सिर्फ चुनाव में हार जीत का नहीं है। चुनाव परिणाम अब तक सत्ता और विपक्ष की राजनीति के प्रति देश या प्रदेश की जनता और मतदाताओं के मानस का पैमाना माने जाते रहे हैं। लोकतंत्र में चुनाव एक ऐसा माध्यम है जिसमें जनता सरकारों के कामकाज से लेकर उनकी कार्यशैली तक को तौलती है। वोट देते वक्त जनता को प्रभावित करने वाले कई मुद्दे मतदाता के मानस पटल पर दर्ज होते हैं और उनका असर मतदान और चुनाव के परिणामों पर भी दिखाई देता है।
अब यदि देश और मध्यप्रदेश के हालात की बात करें तो स्थितियां सत्तारूढ़ भाजपा के लिए कोई सुखद या अनुकूल दिखाई नहीं दे रही थीं। कोरोना ने लोगों से उनके अपनों को जिस तरह छीना था और जिस तरह लोगों को अपने या परिजनों के इलाज के लिए दुश्वारियों का सामना करना पड़ा था वह बात बहुत पुरानी नहीं हुई है। दूसरे खेती किसानी का मुद्दा अब भी देश-प्रदेश में चर्चा का विषय बना हुआ है। प्रदेश के किसान खाद की किल्लत से जूझ रहे हैं। उधर महंगाई की मार चौतरफा दिखाई दे रही है। पेट्रोल डीजल से लेकर रसोई गैस तक के लगातार बढ़ते दामों ने घरों का बजट और अधिक बिगाड़ा है।
कोरोना काल के चलते जो अर्थव्यवस्थ पटरी से उतरी थी वह अभी पूरी तरह अपनी गति में नहीं लौटी है। पिछले दो सालों में हजारों लोगों का रोजगार छिनने और रोजगार के नए अवसर पैदा न होने के चलते बेरोजगारी की समस्या चरम पर है। सामान्य चुनावी आकलन या परंपरागत पूर्वानुमान कहता है कि ऐसे में सत्तारूढ़ दल को नुकसान होना स्वाभाविक है। लेकिन मध्यप्रदेश में ऐसा नहीं हुआ। सत्तारूढ़ दल ने हवा में तैरती तमाम आशंकाओं को दरकिनार करते हुए उपचुनाव वाली चार में से तीन सीटें अपनी झोली में डाल लीं।
मतदाताओं का यह व्यवहार हैरान करने वाला है। साथ ही इस बात की जरूरत को भी रेखांकित करता है कि आखिर प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने वाली या प्रचार प्रसार माध्यमों के जरिये फैलाई जाने वाली दुश्वारियों और सत्तारूढ़ दल की कथित नाकामियों के बावजूद मतदाता अपनी तमाम परेशानियों को दरकिनार कर उसी सरकार या दल का समर्थन कैसे कर रहा है जिसके राज में वह दुखी बताया जा रहा है।
इसका एक सीधा और सपाट उत्तर सत्तारूढ़ दल की ओर से यह दिया जा सकता है कि सरकार या सत्ता दल के खिलाफ जो भी दुष्प्रचार किया जा रहा है उसका कोई आधार नहीं है और ये सब उसे बदनाम करने की विपक्ष की चाल है। चुनाव परिणामों की सूची दिखाकर दावा किया जा सकता है कि जनता ऐसे दुष्प्रचार के बहकावे में नहीं आई और उसने सरकार व सत्ता दल की रीति-नीति पर भरोसा करते हुए उसे अपना समर्थन दिया।
लेकिन इस तर्क को मान भी लें तो उस वास्तविकता का क्या करेंगे जो आंखों के सामने दिखाई देती है। चुनावी हारजीत अपनी जगह है लेकिन क्या चुनाव परिणाम, भले ही वे किसी के भी पक्ष या विरोध में आए हों, जनभावनाओं की इतनी बड़ी ताकत अपने साथ लेकर चल रहे हैं कि जिसके आगे महंगाई, बेरोजगारी और दैनंदिन जीवन की बाकी दुश्वारियां ओझल हो जाएं।
और यदि ऐसा नहीं है तो फिर मतदाता अपनी समस्याओं और कठिनाइयों के बावजूद रियेक्ट क्यों नहीं कर रहा? चुनाव ही तो वो मंच है जहां राजनीतिक नेतृत्व के प्रति मतदाताओं का इस तरह का रियेक्शन मुखर होकर सामने आ सकता है। और जब इस मंच पर भी वह रियेक्शन दिखाई नहीं देता तो क्या इसका मतलब यह माना जाए कि मतदाताओं ने चुनाव की पूरी प्रक्रिया के प्रति एक उदासीनता या निस्पृह भाव को ओढ़ लिया है। क्या अब वे चुनाव को सिर्फ मतदान के दिन पोलिंग बूथ में जाकर एक मशीन का बटन दबा देने वाले कर्मकांड की तरह ही देख रहैं हैं उससे ज्यादा कुछ नहीं?
पूछा जा सकता है कि क्या अब चुनाव जनसमस्याओं और सरकारों की कार्यशैली पर दी जाने वाली प्रतिक्रिया का जरिया नहीं रहे हैं? क्या लोग धीरे धीरे हमारी चुनावी राजनीति को लेकर यथास्थितिवादी होते जा रहे हैं? क्या उन्होंने यह मान लिया है कि चुनाव हो जाने या मत डालने से भी होना-जाना क्या है, सांपनाथ जाएंगे तो नागनाथ आ जाएंगे।
यदि ऐसा है तो हमारे लोकतंत्र के लिए यह बहुत खतरनाक स्थिति है। इस स्थिति को किसी दल विशेष के विरोध या समर्थन में नहीं बल्कि हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में आ रहे बदलाव के रूप में देखा जाना चाहिए। मध्यप्रदेश का उदाहरण इस मामले में पूरे देश के लिए अध्ययन का विषय हो सकता है। खासतौर से उन लोगों के लिए जिनकी राजनीति और चुनाव प्रक्रिया का अध्ययन करने में रुचि है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ठीक एक साल पहले भी मध्यप्रदेश में इसी चुनाव प्रक्रिया के परिणामों ने पूरे देश को चौंकाया था।
2018 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी थी। और सवा साल बीतते बीतते, उस समय कांग्रेस के ही बड़े नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के विद्रोह के चलते वह सरकार गिर गई थी। ज्योतिरादित्य ने अपने समर्थक 22 विधायकों के साथ भाजपा का दामन थाम लिया था। उस ऐतिहासिक दलबदल के बाद प्रदेश में बड़ी संख्या में उपचुनाव हुए थे। उस समय भी राजनीतिक प्रेक्षकों और मीडिया के एक वर्ग का यह मानना था कि जनता शायद इस तरह के दलबदल को स्वीकार नहीं करेगी और दलबदल करने वाले ज्यादातर विधायक हार जाएंगे।
लेकिन हुआ इसका ठीक उलटा। दलबदल करने वाले ज्यादातर विधायक न सिर्फ जीते, बल्कि बाद में शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व में बनी भाजपा की सरकार में मंत्री भी बने। और तो और ताजा उपचुनाव में भी भाजपा ने वह फार्मूला अपनाया और जोबट में कांग्रेस से दलबदल कर आई सुलोचना रावत को टिकट दिया और वे जीत भी गईं। इसी तरह पृथ्वीपुर से जीतने वाले शिशुपाल यादव भी मूलत: भाजपाई नहीं रहे हैं। वे समाजवादी पार्टी में थे और 2018 का चुनाव हारने के बाद 2019 में भाजपा में शामिल हुए थे। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा ने जो दो विधानसभा जीती हैं वे दोनों यानी जोबट और पृथ्वीपुर, परंपरागत रूप से कांग्रेस की सीटे रही हैं जबकि भाजपा अपनी परंपरागत सीट रैगांव का उपचुनाव हार गई।
उपचुनाव के परिणामों के विश्लेषण का एक और एंगल भी है जो राजनीतिक पार्टियों के गलियारों से होकर गुजरता है। मध्यप्रदेश में भाजपा इन परिणामों के बाद कह सकती है कि मीडिया और जनता के एक खास वर्ग को लोगों के मानस का पता ही नहीं है। वे जनता के मन को पढ़ ही नहीं पा रहे हैं। यही कारण है कि चुनाव या उपचुनाव के समय यह बात बहुत जोर शोर से फैलाई और प्रचारित की जाती है कि लोग सरकार या सत्तारूढ़ दल से नाराज हैं। जबकि ऐसा कुछ होता नहीं है। भाजपा अपने इस तर्क के समर्थन में चुनाव परिणामों की सूची प्रमाण के तौर पर सामने रख सकती है जिसकी काट कर पाना आसान भी नहीं होगा।
ऐसे मौकों पर एक और बात चुनाव परिणामों को लेकर कही जाती है और वो है भितरघात की। भितरघात अब किसी एक पार्टी में लगने वाला वायरस नहीं रहा है। हर पार्टी में यह वायरस समान रूप से मौजूद है जो समय समय पर पार्टी की संभावनाओं को बीमार करता रहता है। इस उपचुनाव में भी कांग्रेस और भाजपा दोनों इस वायरस से अछूते नहीं थे। भाजपा इससे पहले दमोह में भी इसी वायरस के कारण हारी थी और संभवत: ताजा उपचुनाव में रैगांव की हार के पीछे भी इसी वायरस का हाथ रहा है।
चुनाव का विश्लेषण करते समय अकसर एक बात पर ज्यादा गहराई से न तो बात होती है और न ही उसकी बारीकियों का पता लग पाता है। यह बात है चुनाव प्रबंधन की। कहने को यहां ‘प्रबंधन’ शब्द इस्तेमाल होता है, पर इसे साम, दाम, दंड, भेद या हर प्रकार के छल-छद्म का पर्याय ही माना जाना चाहिए। इस परिभाषा में आने वाले प्रबंधन में जो जितना आगे होगा या जिसके पास इस तरह के प्रबंधन की जितनी ज्यादा ‘ताकत’ व ‘सामर्थ्य’ होगी वह बाजी मार ले जाएगा। एक समय मध्यप्रदेश के ही मुख्यमंत्री रहे दिग्विजयसिंह ने कहा था कि चुनाव विकास के कामों से नहीं प्रबंधन से जीते जाते हैं। ऐसा लगता है कि कांग्रेस शायद दिग्विजय के उस मशहूर बयान पर उतना अमल नहीं कर पाई जितना भाजपा ने कर दिखाया।(मध्यमत)
——————
नोट– मध्यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्यमत की क्रेडिट लाइन अवश्य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected] पर प्रेषित कर दें।-संपादक