2017 और 2018 के बीच दिलचस्‍प संवाद

0
1397

रमेशरंजन  त्रिपाठी

‘सर, दो हजार अट्ठारह का वीडियो कॉल आ रहा है।’ पीए की सूचना पर दो हजार सत्रह की भौंहें थोड़ा तन गईं-‘अभी रविवार की रात बारह बजे तक तो मैं ही चार्ज में रहूँगा न ! नए साल को क्या जल्दी हो रही है?’

‘सर, इन दिनों सोशल मीडिया, राजनीति और खबरों के कारण नया साल थोड़ा घबराया हुआ लग रहा है।’ पीए फुसफुसाया-‘आपसे कुछ सलाह लेना चाहता है।’

जाने वाले साल के चेहरे पर मुस्कुराहट उभर आई। दोनों वर्ष वीडियो पर आमने-सामने आ गए। हेलो-हाय के बाद नया सीधे मुद्दे पर आ गया-‘बड़े भाई, बधाई हो, आप अपना कार्यकाल सकुशल पूरा करके जा रहे हैं। सुना है हिंदुस्तान में कई लोगों को मेरा धूमधाम के साथ आना पसंद नहीं। मुझे भी अपने जैसा सम्मान हासिल करने के लिए टिप्स देने की कृपा करें।’

‘डरो मत।’ पुराने साल ने ढाढ़स बँधाया-‘आना-जाना तो नियमित प्रक्रिया है। बस, मुट्ठी भर विघ्नसंतोषी लोगों और बदलते समय का ध्यान रखना। तुम्हें विदेशी मानने की आवाज़ें उठ रही हैं इसलिए अपने स्वागत में व्यवधान से विचलित मत होना।’

‘मोटा भाई, आप और मैं तो समय महान के प्रतिनिधि हैं।’ आने वाले साल ने अपनी थ्योरी प्रस्तुत की-‘सभी ने समय को समझने के लिए अपने तरीक़े ढूँढ लिए हैं। जम्बूद्वीप के भारतवर्ष यानी आपके यहाँ शक और विक्रम संवत् चलते हैं। इस्लाम में हिजरी सन् और ईसाइयों में ईस्वी सन् प्रचलन में है। अनेक देशों में अंग्रेज़ों का राज रहने के कारण 435 साल पहले तेरहवें पोप ग्रेगरी द्वारा चलाए गए ग्रेगेरियन कैलेण्डर को पूरी दुनिया में दिन, महीने, साल, दशक और शताब्दियाँ नापने के लिए मान्यता मिली हुई है। इसमें मेरा क्या दोष? हिंदुस्तान में ही उत्तर और दक्षिण में देशी महीनों की व्याख्या में भेद है। मुझे नकारने से पहले उन्हें अपना सर्वमान्य कैलेण्डर तैयार कर पूरे देश में लागू करना पड़ेगा।’

‘केवल कैलेण्डर की बात नहीं है, परिधान और माँस-मदिरा के सेवन पर भी आपत्ति है।’ सत्रह ने टोका।

‘भाई, इस पर भी बहस हो सकती है।’ नए ने दार्शनिक की तरह बात रखी-‘सुरापान और सामिष आहार का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी है। पहनावा भी देशकाल के अनुरूप बदलता रहता है। यदि इनमें बदलाव से राष्ट्रीयता, कर्मठता, विकास और सदाचार की बढ़ोतरी होती है तो अवश्य अपना लें।’

‘तुम इन बदलावों के विरोधी नहीं हो तो परेशानी क्या है?’ सत्रह ने जिज्ञासा प्रकट की-‘तुम्हारे विचारों का तो भव्य स्वागत होगा।’

‘आपकी बात सही हो सकती है परंतु मेरी पूरी दिनचर्या में ख़लल पड़ जाएगा।’ अट्ठारह सोच में पड़ गया-‘मुझे भारत में प्रवेश की तिथि और कार्यकाल की अवधि बदलनी पड़ेगी। वेशभूषा और उत्सव मनाने का नया तरीक़ा अपनाना होगा। यहाँ मैं पूरी दुनिया से अलग दिखाई दूँगा। अभी एक ड्रेस से काम चल जाता था अब दो सिलवाना होंगी। अपने वेलकम में कानफोड़ू गीत-संगीत और बेढब डाँस के स्थान पर पूजा-पाठ, मंत्रोच्चार, घंटे-घड़ियाल, शंखध्वनि की आदत डालना पडे़गी।’

‘अरे, इतना मत सोचो।’ दो हजार सत्रह ने समझाया- ‘इतना सब तो उन्नीस-बीस या पता नहीं किस सन को करना पड़ेगा ! तुम्हारी खिलाफत सियासी प्रोपेगण्डा ज्यादा है। परंतु अभी भी यथास्थिति वाले बहुत लोग हैं जो तुम्हारा स्वागत वैसे ही करेंगे जिसके तुम आदी हो।’

‘बड़े भाई, आपने मेरे मन का बोझ हल्का कर दिया।’ दो हजार अट्ठारह ने चैन की साँस ली-‘थोड़ी बहुत अपमान के लिए तो मैं तैयार ही हूँ।’ आने और जाने वाले साल एक दूसरे को देखकर मुस्कुराये और रविवार की आधी रात तक के लिए अलग हो गए।

(सुबह सवेरे से साभार)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here