अजय बोकिल
अगर यह दिखावे के लिए था तो भी बारम्बार दिखाया जाना चाहिए, यदि यह ‘हीरे’ का ‘माणिक’ के आगे नतमस्तक होना था तो भी अनुकरणीय है और अगर यह शुद्ध राजनीतिक नीयत से था तो इसकी आत्मा अराजनीतिक ही समझी जानी चाहिए। प्रसंग त्रिपुरा के सत्ता साकेत पर लाल झंडा उतरने के बाद भगवा ध्वज लहराने का है।
राज्य में अपनी शानदार जीत से भरमाई-इठलाई भाजपा ने अपने युवा मुख्यमंत्री विप्लव देब के शपथ ग्रहण समारोह को राजसूय यज्ञ की भांति आयोजित किया। इसमें हाशिए पर पड़े पार्टी के मार्गदर्शक नेता जैसे लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को भी आमंत्रित किया गया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह सहित भाजपा शासित राज्यों के तमाम मुख्यमंत्रियों की मौजूदगी से इस आयोजन की राजसी आभा और बढ़ गई।
शपथ ग्रहण के बाद त्रिपुरा जैसे छोटे राज्य की तकदीर और तस्वीर बदलने के दावों से भरे भाषण हुए। चुनाव और उनके नतीजों के बाद फैली राजनीतिक तल्खी और हिंसा, भाजपा कार्यकर्ताओं के जोश और जनता की उम्मीदों के माहौल के बीच एक नोट करने लायक घटना थी-शपण ग्रहण के मंच पर त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार की गरिमामय मौजूदगी।
हालांकि उनकी पार्टी माकपा ने इस शपथ ग्रहण समारोह का बहिष्कार किया, लेकिन माणिक स्वयं आए। उन्होंने नए सत्ताधीशों के न्यौते का मान रखा। माणिक की मंच पर मौजूदगी और शपथ ग्रहण के बाद उसी गरिमा के साथ रवानगी, एक ऐसी विरल और प्रेरक राजनीतिक घटना है, जिसे आज की टुच्ची और चीरहरण वाली पॉलिटिक्स के बीच सोने की स्याही से रेखांकित किया जाना चाहिए।
भले ही इसे टीवी चैनलों पर अपेक्षित प्रचार न मिला हो, लेकिन यह बात लोगों के दिलों में जरूर घर कर गई है। त्रिपुरा के (अब पूर्व) मुख्यमंत्री माणिक सरकार के बारे में जो कहानियां प्रचलित रही हैं, वह त्रेता युग सी लगती हैं। कई को यह झूठी इमेज बिल्डिंग की कोशिश भी लगती रही है। क्योंकि महज 10 हजार रुपए के मासिक भत्ते, बिना निजी कोठी, बिना निजी गाड़ी तथा नाते-रिश्तेदारों की बेपनाह दौलत और दलाली के बगैर कोई मुख्यमंत्री कैसे कहला सकता है?
बिना खुद को सेवक बताए भी कोई 20 बरसों तक लगातार जनता की चुपचाप सेवा कैसे कर सकता है? इतना कुछ करने के बाद भी चुनाव हार जाने पर इस पराजय को भी वीरोचित भाव से कैसे ले सकता है? इस कलियुग में भी ऐसा कोई कर सकता है तो उसका नाम माणिक सरकार ही होना चाहिए।
यही त्रिपुरा में हुआ भी। चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के जिन वरिष्ठ नेता और पूर्वोत्तर में चुनावी रणनीतिकार राम माधव ने माणिक सरकार को ‘भ्रष्ट’ और ‘हिंसक सरकार’ आदि बताया था, जो राम माधव चुनाव नतीजों के बाद भड़की हिंसा के लिए माकपा और माणिक सरकार को ही जिम्मेदार ठहरा रहे थे, वही राम माधव नए मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह का आमंत्रण देने माणिक सरकार के घर गए।
जिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव के दौरान ‘माणिक’ को खारिज कर ‘हीरा’ लाने की जरूरत बताई थी, वही नरेन्द्र मोदी, माणिक सरकार को नए मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण के बाद मंच से नीचे तक छो़ड़ने गए। मंच पर भी माणिक अपने ‘ आर्ष वैचारिक शत्रुओं’से मित्र भाव से बतियाते नजर आए। वे ‘शत्रु खेमे’ के इस सदव्यवहार से अभिभूत भले न हों, प्रसन्न अवश्य थे। और तो और राज्य के नए मुख्य मंत्री विप्लव देब ने माणिक के पैर छूकर उनसे आशीर्वाद भी लिया।
यकीनन कई लोग इसे एक सियासी ड्रामा मानेंगे। क्योंकि सत्ता के मंगलाचरण में स्तुतिगान आवश्यक ही है। (हालांकि पहले पैर छूकर आशीर्वाद लेना और बाद में लंगड़ी मारकर निपटा देना भी भारतीय राजनीतिक संस्कृति का अहम हिस्सा है और इससे शायद ही कोई पार्टी अछूती हो)। यह भी संभव है कि जिस लाल रंग में त्रिपुरा की जनता बरसो रंगी रही, उसे उतारने की यह राजनीतिक रंगरेजी हो। कोशिश यह भी हो कि राज्य की ‘नास्तिक’ हो चुकी हवा को आस्था की अगरबत्ती से कैसे महकाया जाए? या फिर नीयत विजेता के अहंकार को दूर रखने की भी हो सकती है।
कारण जो भी हो, लेकिन जो दिखाई पड़ा, उसे राजनीतिक कटुता के घटाटोप में आशा की किरण की तरह देखा जाना चाहिए। वरना कोई कारण नहीं था कि भाजपा नेता शपथ ग्रहण कार्यक्रम में माणिक को बुलाते। यह माणिक का बड़प्पन है कि पार्टी द्वारा कार्यक्रम के बहिष्कार की स्पष्ट घोषणा के बाद भी वे उन नेताओं के बीच बैठे, जिन्हें साम्यवादियों की शब्दावली में ‘फासीवादी’ कहा जाता है। वे शपथ ग्रहण तक रुके और तब उठे जब मंच से राजनीतिक तकरीरें चालू हुईं।
यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भी सदाशयता है कि एक पूर्व मुख्यमंत्री को मंच से नीचे तक छोड़ने वे स्वयं गए। हालांकि बाद में मंच से उसी तरह के भाषण हुए जैसे कि इस तरह के कार्यक्रमों में होते हैं। जनता के लिए जीने-मरने की कसमें खाई गईं, विकास और समृद्धि जैसे शब्दों का बार-बार आचमन हुआ और स्वयं को सबसे बड़े तारणहार के रूप में पेश किया गया।
राज्य के नए मुख्यमंत्री ने कुछ इसी अंदाज में जनता से कहा भी कि मैं मुख्यमंत्री नहीं हूं। मुझसे कोई गलती हो तो आप कान पकड़कर उसे ठीक करिएगा। साथ में भावुक अपील भी कि ‘मैं एकदम नया हूं, मुझे आशीर्वाद दीजिएगा।‘
जो भी पहली बार मुख्यमंत्री बनता है, नया ही होता है। लेकिन सालों पद पर रहते घाघ बन जाता है। पाखंड के कवच-कुंडल धारण कर लेता है। लेकिन माणिक सरकार जैसे लोग यह नहीं कर पाते। क्योंकि वे ऐसा करना ही नहीं चाहते। सत्ता जाने पर वे सरकारी हवेली को त्याग कर पार्टी के दो कमरों में रहने चले जाते हैं। जनता की अहर्निश सेवा के बदले कोई मेवा नहीं मांगते। वे सच्चाई के फलाहार पर ही खुश रहते हैं।
नेकी की यही सुगंध राजनीतिक दीवारों को भेद कर महकती है। ईमानदारी का यह रथ युधिष्ठिर के रथ की तरह वैचारिक कट्टरताओं की सतह से छह इंच ऊपर ही चलता है। चुनावी हार-जीत के कई कारण हो सकते हैं। लेकिन नैतिक ईमानदारी के चुनाव में कोई विकल्प नहीं होता। यही कारण है कि ‘राष्ट्रभक्त’ भी माणिक के इन गुणों को अनदेखा नहीं कर सके। रत्न शास्त्रियों की भाषा में कहावत है कि ‘माणिक की दलाली में हीरे मिलते हैं।‘ त्रिपुरा के इस चुनाव में राज्य को ‘हीरा’ भले न मिला हो, लेकिन माणिक की ईमानदारी और सच्चरित्रता की आभा, विनम्रता एवं गरिमा की चमक सदा कायम रहेगी।
काश, त्रिपुरा में दिखे इस परस्पर राजनीतिक सौहार्द और आदर भाव की बिजली हर कहीं कड़के।
(सुबह सवेरे से साभार)