गिरीश उपाध्याय
मध्यप्रदेश के ताजा बजट का केंद्रीय तत्व आत्मनिर्भरता है। वित्त मंत्री जगदीश देवड़ा ने 2 मार्च को विधानसभा में बजट प्रस्तुत करते हुए इसी तत्व को ध्यान में रखते हुए बजट को मिशन मोड में प्रस्तुत किया है। कोविड महामारी की छाया बजट पर साफ दिखाई देती है और इसलिए इस बार के बजट से बहुत ज्यादा उम्मीद करने के बजाय यह देखा जाना चाहिए कि यह बजट आने वाले एक साल तक प्रदेश की अर्थव्यवस्था को कैसे संभाले रखता है। आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने का कोई अतिरेकी सपना पूरा करने की सोच के बजाय यह ज्यादा अहम होगा कि जो है, जैसा है, यह बजट कम से कम अर्थ व्यवस्था को और कमजोर होने से बचाए रखे।
अच्छी बात यह है कि कोविड की आर्थिक मजबूरियों के बावजूद सरकार ने बजट में कोई नया टैक्स नहीं लगाया है। इसे निश्चित रूप से एक बड़ी राहत के रूप में रेखा जाना चाहिए। जीएसटी लागू होने के बाद राज्यों के बजट में बहुत ज्यादा कुछ करने की गुंजाइश नहीं बची है, इसलिए आय के ऐसे नए स्रोत खोजना जरूरी हैं जो राजस्व तो जुटाएं लेकिन जनता की जेब पर बोझ भी न बनें। और ऐसा लोगों को आत्मनिर्भर बनाकर ही किया जा सकता है।
राज्यों में नहीं केंद्र सरकार तक में बजट की एक सबसे बड़ी कमजोरी पिछले कुछ सालों से यह नजर आ रही है कि राजस्व की दृष्टि से बजट खुद ही आत्मनिर्भर नहीं हैं। सरकारों को खर्चा चलाने के लिए मोटी राशि उधार लेनी पड़ रही है और इस पर ब्याज भी अच्छा खासा देना पड़ रहा है। मध्यप्रदेश के ही बजट की बात करें तो 2 लाख 41 हजार करोड़ रुपये के बजट में 49 हजार 463 करोड़ तो कर्ज से ही आएगा। यानी बजट का 20 फीसदी से ज्यादा हिस्सा सरकार के अपने संसाधनों या करों से नहीं आ रहा है। चिंताजनक बात यह है कि यह स्थिति हर साल कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है और यही कारण है कि मध्यप्रदेश का कुल राजकोषीय घाटा 50 हजार करोड़ रुपये से अधिक पर जा पहुंचा है।
ऋण का जाल प्रदेश की राजकोषीय अर्थव्यवस्था को किस तरह घेरता जा रहा है इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि चार साल पहले यानी 2017-18 में जहां शुद्ध लोक ऋण 16115.78 करोड़ रुपये था वहीं 2020-21 में यह तूफानी गति से बढ़कर 52663 करोड़ पर पहुंच गया। यानी तीन सालों में इसमें करीब साढ़े तीन गुना वृद्धि हो गई। वर्ष 2021-22 के लिए भी सरकार ने 49463.61 करोड़ के लोकऋण का लक्ष्य रखा है। हालांकि 20-21 में और आने वाले वित्त वर्ष में जो कर्ज लिया जाना है उसके पीछे कोरोना से बिगड़ी हुई अर्थ व्यवस्था ही एक बड़ा कारण है। लेकिन फिर भी ऋण के इस बढ़ते जाल से निकलना बहुत जरूरी है।
एक और बात है जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। वो है सरकार के खर्चे। पिछले कुछ सालों से सरकारों ने हालांकि मितव्ययिता की बात करते हुए खर्चों में कटौती के उपाय किए हैं लेकिन वे काफी नहीं हैं। दूसरी ओर मोटामोटा हिसाब ही लें तो 2.41 लाख करोड़ के बजट में से करीब 21 हजार करोड़ रुपये तो सरकार को ब्याज की देनदारी चुकाने में ही लग जाएंगे। इसके अलावा सरकारी कर्मचारियों के वेतन, भत्ते, पेंशन, मजदूरी आदि पर लगभग 67 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे। सरकार के ही आंकड़े कहते हैं कि वेतन, पेंशन और ब्याज भुगतान पर ही कुल बजट का 51.92 यानी आधे से अधिक हिस्सा खर्च हो जाना है। इसमें प्रशासकीय खर्च और कल्याणकारी योजनाओं पर होने वाला खर्च और जोड़ लें तो जिसे हम आधारभूत ढांचागत विकास कहते हैं उसके लिए बजट में राशि नाममात्र की ही बचती है।
अब सवाल ये है कि इस स्थिति से निपटने के उपाय क्या हों। दरअसल मध्यप्रदेश की अर्थव्यवस्था आज भी मोटे तौर पर कृषि पर ही टिकी है। कृषि की अभूतपूर्व वृद्धि दर ने राज्य को बहुत बड़ा सहारा दिया है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि तमाम प्रयासों के बावजूद मध्यप्रदेश में औद्योगिक निवेश, नए उद्योग लगने और लघु एवं मध्यम निर्माण इकाइयों की स्थापना में अपेक्षित तेजी नहीं आ सकी है। यही कारण है कि रोजगार के अवसर भी उतने पैदा नहीं हो पा रहे। इसके लिए हमें अपनी आर्थिक रणनीति पर फिर से विचार करते हुए अपने मजबूत क्षेत्र कृषि में ही नई संभावनाओं को खोजना होगा। मध्यप्रदेश की मिट्टी और यहां की कृषि में विविधता हमारी पूंजी हो सकती है। इस विविधता का इस्तेमाल कर गेहूं और चावल जैसे कृषि उत्पादों से इतर हमें नए-नए कृषि उत्पादों के बारे में सोचना होगा। इसमें उद्यानिकी, पशुपालन, मुर्गीपालन, मछलीपालन, मधुमक्खी पालन, रेशम कीट जैसे क्षेत्रों को आधुनिक और सक्षम बनाने पर ध्यान देना होगा।
यदि हम उद्योग में अपेक्षित लक्ष्य हासिल नहीं कर पा रहे तो कोशिश होनी चाहिए हम कृषि को उद्योग से जोड़ते हुए अपनी आर्थिक ताकत को बढ़ाएं। खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों की बात तो बहुत होती है लेकिन आज भी प्रदेश में फलों व सब्जियों की कई सारी फसलें ऐसी हैं जो संरक्षण के अभाव में खराब हो जाती हैं। यदि उनका प्रसंस्करण हो सके तो वे किसानों को आर्थिक लाभ देने के साथ साथ अन्य लोगों को रोजगार देने और सरकार के खजाने में बढ़ोतरी करने का अच्छा जरिया बन सकती हैं।
प्रदेश के वन क्षेत्र को पर्यटन से और अधिक जोड़ा जाना चाहिए। जंगल सफारी की और अधिक श्रृंखलाएं और सर्किट बनाकर प्रदेश के वनों को हम बहुत बड़े आर्थिक संसाधन के रूप में विकसित कर सकते हैं। एक अछूता क्षेत्र कृषि पर्यटन का है। महाराष्ट्र जैसे राज्य में इसके प्रयोग हुए हैं। मध्यप्रदेश में कृषि के विकास और कृषि की विविधता को ध्यान में रखते हुए यदि हम कृषि पर्यटन को विकसित करने पर जोर दें तो वह भी राजस्व जुटाने के साथ ही रोजगार मुहैया कराने का अच्छा जरिया हो सकता है।