जो जिंदगी के किसी मोड़ पर छूट गई या छोड़कर चली गई, बस उसे याद करते हुए एक काल्पनिक पत्र।
दीपक गौतम
सुनो सखी,
मैं इतने वर्षों बाद तुम्हें कुछ लिख रहा हूँ। शायद इसे पढ़ते वक्त मेरी आवाज तुम्हारे कानों में गूँज रही होगी। इसलिए और ज्यादा सम्बोधन की औपचारिकता में नहीं पड़ना चाहता हूँ। हाँ, मैं तुम्हें अब भी याद करता रहता हूँ। वर्षों हो गए हैं तुम्हें निहारे हुए। इसलिये मुझे पता नहीं है कि तुम अब कैसी दिखने लगी होगी? लेकिन तुम्हारी छवि मेरी आँख के गहरे समंदर में कैद है। जब भी यादों का सैलाब आता है, तो आँख के कोरों से बीता वक्त बूंद-बूंद कर टपक जाता है।
हे सखी, मुझे तो ठीक-ठीक सुध भी नहीं है। बस इतना याद है कि 10 वर्ष पहले वो ‘आलिंगन’ तुम्हारी मृत काया से नहीं अजर अमर ‘आत्मा’ से ही हुआ था। मैं तो तुम्हारी रूह की मखमली छुअन आज तक नहीं बिसरा हूँ। मुझे तो कभी लगा ही नहीं कि तुम साथ नहीं हो, क्योंकि मैं तुम्हें हमेशा जीता रहता हूँ। आगे समाचार यह है कि तुम्हारे जाने के बाद वो जो प्रेम का धागा टूट गया था, उसने वहीं मेरे दिल के बगीचे में जड़ें फोड़ दी हैं। उस एक पतले रेशे ने क्या कहूँ कितनी रहमत बरसाई है। मुझे तो कभी-कभी लगता है कि तुम जाते-जाते कोई प्रेम का कीड़ा छोड़कर गई थी, जिसने मेरी आत्मा के इर्द-गिर्द प्रेम की महीन रेशमी चादर बुन डाली है।
ओ री सखी, मेरे मन से तुम गईं या नहीं, ये तो मैं भी नहीं जानता हूँ। लेकिन हां! मन की गीली जमीन पर तुम्हारा उगाया ‘प्रेम का पौधा’ मैंने सूखने नहीं दिया है। वो अब भी हरिया रहा है और फूलने लगा है। तुम्हें मालूम ना हो तो किसी से भी पूछ लेना, क्योंकि मेरी बेचैन रूह की जमीन से अब जो भी गुजरता है, वो इश्क के ‘इतर’ से तरबतर हो जाता है। प्रेम की सुगंध उसके नथुनों में समा जाती है। वो तो और किसी काम का रह ही नहीं जाता है। सिवाय प्रेम के उसे कुछ सूझता ही नहीं है। अब मैं तुमसे करूं भी तो क्या शिकायत करूं। मेरी रूह की रहगुज़र से गुज़रने वाला हर शख़्स इश्क-मिजाजी छोड़कर इश्क-हक़ीक़ी में लग जाता है।
मेरी प्रिय सखी, तुम शायद समझ ही नहीं रही हो कि मैं इश्क का ‘चलता-फिरता प्रेत’ हो गया हूँ। शायद ये जानकर तुम्हें और खुशी होगी कि अब इस खूबसूरत दुनिया को मेरी ‘’छुआछूत’’ से खतरा है। तुम यकीन करो ‘’प्यार का वायरस’’ कोविड-19 से भी तेज फैलता है। मैं जिसे भी छू देता हूँ, वो इश्क से बीमार हो जाता है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम आ जाओ। बस एक बार आ जाओ। चंद लम्हात के लिए ही सही, लेकिन आ जाओ। मुझे इस बला से मुक्ति दे दो। ये जो ‘प्रेम का कीड़ा’ मेरी आत्मा को अपने महीन रेशों से बनी चादरों से दिन-ब-दिन बुनता जा रहा है। मुझे अब इसमें घुटन सी होने लगी है। मुझमें अब और खुशबुएं लुटाने का हुनर नहीं है।
प्रिय सखी, तुम आ जाओ, जितनी जल्दी हो सके आ जाना। अब देर मत करना और सुनो मैं पहले ही कह चुका हूँ कि इस पौधे को भी यहां से उखाड़कर ले जाओ। इसे कहीं किसी और मानुस के हृदय में रोप देना। ये प्रेम के नहीं अमरता के बीज हैं, जो तुमने मेरी मन की जमीन पर बोये हैं। लेकिन सखी मैं अब मरना चाहता हूँ। मुझे तुम्हारे प्रेम से मुक्ति चाहिए है। मेरा यकीन करो मैं तुम्हें शीघ्र विदा दे दूँगा।
सखी, मैं चाहता हूँ कि तुम बस एक बार आ जाओ। क्योंकि ये जो ‘प्रेम की कली’ तुमने दिल के गलीचे में इश्किया खंजर से गड्ढा करके रोपी थी। उसे उगाने या उजाड़ने का हुनर तो मैं तुमसे सीखना ही भूल गया हूँ। मैंने तो वर्षों से उस कली को बस अपना खून सींचा है। शायद इसीलिए उस पर तुम्हारे होंठ से सुर्ख लाल रंग के गुलाब खिलते हैं। इनमें मदहोश कर देने वाली खुशबू है। मैं इस तेज गुलाबी ‘’इतर’’ की खुशबू से अब बचना चाहता हूँ। सखी, मैं सच कहता हूँ कि अब मुझसे ये खुशबू बर्दाश्त नहीं होती है। मैं चाहता हूँ कि तुम अपना बोया ये ‘’प्रेम-पौधा’ बस जल्द से जल्द उखाड़कर ले जाओ। इससे पहले कि ये झाड़ से किसी दरख़्त में बदल जाये, तुम आ जाओ। क्योंकि मैं अब तुम्हारे दैवीय प्रेम से मुक्ति चाहता हूँ।
प्रिय सखी, तुमने एक बार के ‘आलिंगन’ में मुझे दैवत्व दे दिया है। मैं फिर मनुष्य होना चाहता हूँ। मुझे अमरता से बचा लो, मैं देह धरकर ही यहां दुनिया में आया था। और यहीं इसी मिट्टी में राख होना चाहता हूँ। मुझे प्रेम के बीज नहीं बोने हैं। ना ही प्रेम की खेतीबाड़ी में कोई मुनाफा है। तुम आ सको तो जल्द आ जाना, क्योंकि मैं अब खुद को वापस पाना चाहता हूँ। सखी, मेरे अंदर से उठती इश्किया गन्ध मेरा अस्तित्व बनती जा रही है। कभी-कभी तो लगता है कि तन जैसा तो कुछ है ही नहीं। ये तो बस मेरी रूह का लिबास है और मैं इसे छोड़कर अनंत यात्रा पर निकल जाऊं। इससे पहले कि मेरी आत्मा पर पड़ी प्रेम की चादरें मैली हो जायें, तुम आ जाना। मैं अपनी साबुत रूह को तैयार रखूंगा, मुझे तुम्हारे दैवीय प्रेम का लबादा उतारना है।
– सिर्फ तुम्हारा आवारा