यह समय हवा में सवाल उछाले जाने का है। चारों ओर से सवाल ही उछाले जा रहे हैं। जवाब बहुत कम मिल रहे हैं। विकास संवाद के ‘ओरछा विमर्श’ का चौथा सत्र जवाब की दिशा तलाशने वाला था। इसका विषय था‘असहिष्णुता के बरक्स संभावनाएं’
छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाके में काम करने वाले मीडियाकर्मी शुभ्रांशु चौधरी ने बात की शुरुआत करते हुए कहा कि हमें दर्द को ही दवा बनाना होगा। उन्होंने बताया कि बस्तर के माओवाद प्रभावित सुदूर इलाकों में मोबाइल फोन वॉयस बॉक्स की तरह इस्तेमाल होता है। इस वॉयस बॉक्स के जरिए आदिवासी इलाके में मीडिया का लोकतांत्रीकरण संभव है। हमें रेडियो जर्नलिज्म को हथियार बनाना होगा। आदिवासी समुदाय का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि वह समुदाय पहले है व्यक्ति बाद में, जबकि हमारा शहरी समाज इसके ठीक उलट है।
आदिवासी समुदाय प्रकृति पर निर्भर है, इसलिए वह लेने में कम और देने में ज्यादा विश्वास रखता है। हम मीडिया के लोग माओवादियों की समझ को जानने जाते हैं तो सिर्फ नेताओं से बात करके लौट आते हैं, मूल आदिवासी के साथ हमने कोई संवाद कायम नहीं किया। जबकि माओवादी यही कर रहे हैं। हम आदिवासियों से सीधा रिश्ता कायम करके ही माओवाद जैसी समस्या से निपट सकते हैं। जरूरी है कि उनसे हम अपनी भाषा में नहीं बल्कि उनकी बोली में बात करें।
वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश पुरोहित ने कई उदाहरण देते हुए बताया कि राजनीति चारों तरफ भ्रम फैलाने का काम कर रही है। आए दिन अखबारों में छपने वाले नेताओं के लेख पढ़कर उनकी लेखकीय प्रतिभा पर ताज्जुब होता है, क्योंकि जब वे प्रत्यक्ष बोलते हैं तो उसमें उनके लेखन की पांच प्रतिशत प्रतिभा भी दिखाई नहीं देती। कोई भी लड़ाई विचार से ही लड़ी जा सकती है। चूंकि नेताओं के पास खुद के विचार ही नहीं हैं, इसलिए उन्होंने इस काम के लिए भाड़े के लोग लगा रखे हैं।
विचार के साथ साथ भाषा ज्ञान का भी दिवालियापन दिखाई देता है। हम जानते ही नहीं कि जिस शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं उसका अर्थ क्या है। भाषा और विचार के प्रति ये असहिष्णुता खतरनाक है। तानाशाह की खासियत होती है कि वह खबर के बल पर जीता है और विचार से मरता है। इसलिए आज विचारशून्यता की स्थितियां निर्मित की जा रही हैं।
चर्चित टीवी एंकर और पत्रकार सुमित अवस्थी ने कहा कि पत्रकारिता अब भी मिशन है, लेकिन कमाने का। हम आज की विकट स्थितियों की बात करते हैं, लेकिन अगर यह खराब दौर है तो जब घोषित आपातकाल था तब क्या स्थितियां रही होंगी इसकी कल्पना की जा सकती है। जब तक जीवन है असहिष्णुता रहेगी… होनी चाहिए। यदि सहिष्णु हो गए, यथास्थितिवादी हो गए तो काम नहीं चलने वाला। बच्चा भी अपनी बात मनवाने के लिए जिद करता है। तो क्या वो भी अपने मां-बाप से असहिष्णुता कर रहा है?
उन्होंने कहा कि असहिष्णुता को नकारात्मक शब्द मान लेने से मैं सहमत नहीं हूं। किसी रूप में यह सिस्टम से लड़ने की कोशिश भी है, हमें उस संदर्भ में भी इसे देखना होगा। आज की राजनीतिक परिस्थिति में आपको एक्सट्रीम राइट और एक्सट्रीम लेफ्ट के कई उदाहरण मिल जाएंगे। लेकिन आज यदि भक्त ट्रोल कर रहे हैं तो 2014 के पहले भी तो यही हो रहा था, फर्क सिर्फ संख्या का है।
कोई भी सरकार हो वह मीडिया को दबाकर रखना चाहती है। यह तो हमें तय करना है कि हम दबेंगे तो कितना दबेंगे या नहीं दबेंगे। इसी तरह मीडिया घराने भी धर्मार्थ काम नहीं कर रहे हैं, उन्हें भी मुनाफा चाहिए। जिस तरीके से चीजें बदल रही हैं मीडियाकर्मियों को उसका दबाव झेलना पड़ता है। किसी व्यक्ति के खिलाफ चार लाइनें बोल देने पर फोन पहले भी आता था,आज भी आता है।
कोशिश पहले भी यही रहती थी और आज भी है कि मीडिया को दबाओ उसे बदनाम कर दो कि यह तो बिकाऊ है, रोजी रोटी के लिए कुछ भी समझौता कर लेगा। इंटरनेट और सोशल मीडिया आज समाज को खराब कर रहा है। यदि हमें चीजों को सुधारना है तो आंख मूंदकर सोशल मीडिया पर भरोसा करना छोड़ना होगा। मैं ‘अपक्षीय’आदमी हूं। पत्रकार के नाते मेरी जिम्मेदारी बड़ी है और यह भी कि मैं अपक्षीय रहूं। सवाल पूछना अपना काम है। सवाल पूछने पर यदि आप मुझे असहिष्णु कहते हो तो हां मैं हूं। क्योंकि मैं सिस्टम के साथ वैसा यथास्थितिवादी होकर नहीं रहना चाहता हूं।
और इस सत्र के अंतिम वक्ता के रूप में मुझे बोलना था। मैंने अपनी बात ‘पोस्ट ट्रुथ’ से ही शुरू की। मैंने कहा- पोस्ट ट्रुथ की बहुत चर्चा हुई है, लेकिन आज हम जिस पीढ़ी से संवाद कर रहे हैं वह पोस्ट शब्द को दो ही संदर्भों में समझती है और वे हैं ‘पोस्ट पेड’ और ‘प्री-पेड’… विडंबना देखिए कि मीडिया में आज जो हो रहा है वह या तो ‘प्रीपेड ट्रुथ’ है या ‘पोस्टपेड ट्रुथ’। इन दोनों के बीच झूलते हुए यह समय या तो सच को घटा-बढ़ाकर बताने का है या फिर झूठ की इंतहा करने का। अब हमें ही तय करना होगा कि हम सच को घटा-बढ़ा कर पेश करें या झूठ को उसकी इंतहा के साथ।
असहिष्णुता के बरक्स संभावना तलाशनी है तो वह प्रति-असहिष्णुता तो नहीं हो सकती। असहिष्णुता का जवाब असहिष्णुता नहीं है। जब हम किसी को खारिज करने के ही लिए सन्नद्ध हों, उसे सुनने को तैयार ही नहीं हों तो असहिष्णुता तो पनपेगी भी और बढ़ेगी भी। हमें यह देखना होगा कि असहिष्णुता के खिलाफ हमारे हथियार क्या हैं। और क्या वो हथियार असहिष्णुता के कवच को भेदने की ताकत रखते हैं।
विचार के खिलाफ विचार को ही हथियार बनाना होगा। आप गुस्सा होकर, आवेश में आकर या गाली देकर लड़ाई नहीं जीत सकते… आप सामने वाले को खारिज करके लड़ाई नहीं जीत सकते। अंगारे के खिलाफ लपट को खड़ा करके आग नहीं बुझाई जा सकती। इस नफरत भरे माहौल से सिर्फ दया, प्रेम, करुणा, स्नेह, ममता और मानवता की भावना से ही लड़ा जा सकता है।
(कल पढि़ये अंतिम किस्त)