जो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है… लेकिन

मेरे प्रिय शायर साहिर लुधियानवी का एक गीत है- ‘’अश्कों ने जो पाया है वो गीतों में दिया है…’’ इस गीत में जितना दर्द है, उतने ही दर्द के साथ तलत महमूद ने इसे गाया भी है। इसी गीत की एक पंक्ति है-

जो तार से निकली है वो धुन सब ने सुनी है

जो साज़ पे गुज़री है वो किस दिल को पता है

ये गीत मुझे रविवार को एक बहुत ही मार्मिक खबर पढ़कर याद आया। खबर के मुताबिक छत्‍तीसगढ़ के न्‍यूज चैनल IBC24 की एक न्‍यूज एंकर के साथ बेहद दर्दनाक हादसा हुआ। यह हादसा भीतर तक कंपा देने वाला था। एंकर सुप्रीत कौर रोज की ही तरह बुलेटिन पढ़ रही थी। अचानक ब्रेकिंग न्‍यूज में एक सड़क दुर्घटना की खबर चली। जैसा कि होता है, बाकी खबरों को छोड़ सुप्रीत उस दुर्घटना का अपडेट दर्शकों को देने लगी। उसने दुर्घटना के बारे में रिपोर्टर से सवाल भी किए।

बुलेटिन पूरा करने के बाद सुप्रीत जब न्‍यूज रूम में गई तो उसे पता चला कि अभी अभी स्‍क्रीन पर वह जिस दुर्घटना की खबर दर्शकों को सुनाकर आई है, उस दुर्घटना में खुद उसका पति मारा गया है और भाई गंभीर रूप से घायल हुआ है। सुप्रीत की दो साल पहले ही शादी हुई थी।

सूचनाएं कहती हैं कि सुप्रीत को यह खबर सुनाते समय थोड़ा खुटका तो हुआ था, क्‍योंकि उसे पता था कि जिस इलाके की खबर वह दर्शकों को सुना रही है, उसी इलाके में उसके पति भी गए हुए हैं। लेकिन उसने समाचार पढ़ना जारी रखा।

सुप्रीत के साथ जो कुछ हुआ उस दर्द की कल्‍पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन ऐसे दर्द खबरों की दुनिया में रहने वालों की ऐसी कड़वी सच्‍चाई है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। एक पत्रकार होने के नाते मैं कह सकता हूं कि- सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है, अपने जिगर का हाल हमें खुद पता नहीं… हम खबर वालों का हाल भी रंगमंच के उस विदूषक की तरह है, जो हजार गमों का प्‍याला पीकर भी दर्शकों को हंसाने में लगा रहता है।

चूंकि मैं स्‍वयं ऐसी स्थिति से गुजरा हूं, इसलिए कह सकता हूं कि ऐसे समय आपकी जो हालत होती है, उसे शब्‍दों में बयां नहीं किया जा सकता। मुझे याद आती है 2002 की वह घटना जब मैं भोपाल में ईटीवी मध्‍यप्रदेश/छत्‍तीसगढ़ का प्रभारी था। भोपाल के दैनिक भास्‍कर में काम करने वाले अत्‍यंत प्रतिभाशाली पत्रकार प्रशांत कुमार को मैंने ही ईटीवी में बुलेटिन प्रोड्यूसर के रूप में हैदराबाद भिजवाया था।

एक दिन खबर आई कि प्रशांत का बड़ा एक्‍सीडेंट हुआ है और उसकी हालत गंभीर है। भोपाल दफ्तर का माहौल उस खबर को सुनकर गमगीन हो गया। कई लोगों की प्रशांत से रोज बात होती थी। भोपाल से जाने वाली खबरों को लेकर न्‍यूज बुलेटिन तैयार करवाने का काम हैदराबाद में वो ही देख रहे थे। कौनसी खबर कहां ली जा रही है, उसका ट्रीटमेंट कैसे किया गया है इसकी जानकारी वे रोज मुझे देते थे।

कुछ दिन इलाज चला लेकिन प्रशांत को बचाया नहीं जा सका। और आखिरकार वह खबर भी आ गई जिसका कोई इंतजार नहीं कर रहा था। उस शाम वही स्‍टॉफ था, भोपाल में भी और हैदराबाद में भी। बुलेटिन का रन ऑर्डर (खबरों को जारी किए जाने की क्रमवार सूची) भी आई। फर्क सिर्फ इतना था कि रोज जो व्‍यक्ति रन आर्डर भेजा करता था, उस दिन खुद उसके दिवंगत होने की खबर भी उसी रन ऑर्डर में शामिल थी।

व्‍यक्ति नहीं था, लेकिन बुलेटिन वही था। उस दिन का बुलेटिन भोपाल में हम सबने आंसुओं के साथ देखा। स्‍क्रीन पर जब प्रशांत का फोटो आया तो यकीन करना मुश्किल था कि जो सबकी खबर दिया करता था, आज वह खुद खबर बना हुआ है।

दरअसल मीडिया की दुनिया बाहर से जितनी ग्‍लैमरस दिखती है, भीतर से वह उतनी ही खोखली और निर्मम है। सुप्रीत और प्रशांत के मामले में तो चूंकि घटना अलग तरह की होने या सहयोगियों का अत्‍यंत लगाव होने जैसे कारण थे, इसलिए उनकी खबरें भी प्रकाशित हो गईं, लेकिन ज्‍यादातर मामलों में तो दुनिया भर की खबर छापने वाले पत्रकारों को, खुद की मौत पर भी मीडिया में एक लाइन नसीब नहीं होती। आप शायद यकीन न करें लेकिन ऐसे भी प्रसंग हैं कि खुद पत्रकार या उसके माता पिता के निधन या उठावने की सूचना छपवाने के लिए भी परिजनों से नियमानुसार (?) विज्ञापन के पैसे मांग लिए गए।

जो पत्रकार अपने अखबार या चैनल के लिए न दिन देखता है ना रात, न खाना देखता है ना नींद, न परिवार देखता है न ही अपनी सेहत… उसकी नियति यह है कि उससे कभी भी, किसी भी दिन, किसी भी क्षण कह दिया जाता है- ‘’आप आज से संस्‍थान में नहीं हैं…’’ 

और यहीं आकर साहिर के उसी गीत की दो और पंक्तियां याद आ जाती हैं-

हम फूल हैं औरों के लिये लाये हैं खुशबू

अपने लिये ले दे के बस इक दाग़ मिला है

 

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