In this picture taken on on July 30, 2013, young Indian woman Shweta Katti (L) and her mother Vandana smile as they go through photographs clicked on her mobile phone as they wait at a suburbun railway station in Mumbai. A young Indian woman who grew up in Mumbai's red-light district facing poverty and sexual abuse has overcome the odds to win a scholarship to study in New York. AFP PHOTO / INDRANIL MUKHERJEE

शिक्षा के बढ़ते स्तर और जीवन स्तर में हो रहे लगातार सुधार ने मध्यप्रदेश में बच्चों को असमय मौत के मुंह में जाने से रोकने में बड़ी भूमिका निभाई है। पढ़े लिखे और ठीक ठाक आर्थिक स्थिति वाले परिवार बच्चों के टीकाकरण के मामले में ज्यादा जागरूक हैं और यही कारण है कि ऐसे परिवारों में जीवनरक्षक टीके न लगने से होने वाली बच्चों की असमय मौत का प्रतिशत भी अपेक्षाकृत कम है।

यूनीसेफ की दिसंबर 2013 में प्रकाशित चिल्ड्रन इन मध्यप्रदेश रिपोर्ट के अनुसार दस साल या उससे अधिक समय तक शिक्षा पाने वाली महिलाओं ने मां बनने पर अपने बच्चों के समग्र टीकाकरण के मामले में ज्यादा जागरूकता दिखाई। ऐसी महिलाओं के परिवारों में पैदा होने वाले 60.6 प्रतिशत बच्चों को सारे आवश्यक टीके लगे और उन्हें कई जानलेवा बीमारियों से बचने का कवच मिल सका। दूसरी ओर अशिक्षित माताओं के परिवारों में समग्र टीकाकरण का लाभ पाने वाले बच्चों का प्रतिशत सिर्फ 24.5 ही रहा। यानी शिक्षा और जागरूकता के अभाव ने नवजात बच्चों को उस जीवनरक्षक कवच से वंचित किया जो सरकारी अस्पतालों में निशुल्क उपलब्ध था। जिन बच्चों को जन्म के बाद बीसीजी का टीका, डीपीटी के तीन इंजेक्शन, पोलियो की तीन खुराक और खसरे का टीका लगा हो वे समग्र टीकाकरण के दायरे में माने जाते हैं।

शिक्षा के प्रचार प्रसार का असर एक और बात से पता चलता है कि 2007-08 में हुए डीएलएचएस-3 (डिस्ट्रिक्ट लेवल हाउसहोल्ड सर्वे-3) के अनुसार मध्यप्रदेश में संपूर्ण टीकाकरण का लाभ पाने वाले बच्चों का प्रतिशत 36 था जो 2011 में बढ़कर 54.9 प्रतिशत हो गया। तुलनात्मक रूप से देखें तो 2001 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में जहां साक्षरता दर 63.7 थी वहीं यह 2011 में बढ़कर 70.6 हो गई। यह वही दशक है जब डीएलएचएस-3 (2007-08) और पिछली जनगणना (2011) की अवधि के करीब चार सालों में समग्र टीकाकरण पाने वाले बच्चों का प्रतिशत 36 से बढ़कर 54.9 हो गया। दूसरे शब्दों में कहें तो साक्षरता या जागरूकता बढ़ने पर बच्चों को जीवनरक्षक टीका लगवाने के मामले में करीब 19 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। ये आंकड़े साफ बताते हैं कि यदि प्रदेश में नवजात शिशुओं से लेकर छह वर्ष तक की आयु के बच्चों की असमय मौत को रोकना है तो शिक्षा और स्वास्थ्य जागरूकता पर प्रभावी तरीके से काम करना होगा।

शिक्षा के प्रचार प्रसार की ताकत एक और आंकड़े से भी पता चलती है कि प्रदेश में शिशु मृत्यु दर में भी पिछले कुछ सालों में उल्लेखनीय कमी आई है। शिशु मृत्यु दर से आशय ऐसे बच्चों से है जो जीवित अवस्था में जन्म लेने के बाद से एक वर्ष तक की अवधि में ही मौत का शिकार हो जाते हैं। 2007 में प्रदेश में शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार बच्चों पर जहां 72 थी वहीं 2011 में यह घटकर 59 रह गई। इसी अवधि के यदि राष्ट्रीय आंकड़ों को देखें तो हम पाएंगे कि देश में 2007 में जहां प्रति हजार शिशुओं पर मृत्यु दर का आंकड़ा 55 था वह 2011 में घटकर 44 रह गया। यानी राष्ट्रीय स्तर पर इस अवधि में शिशु मृत्यु दर में 11 अंकों की कमी आई वहीं मध्यप्रदेश में यह कमी 13 अंकों की रही। हालांकि मध्यप्रदेश शिशु मृत्यु दर के मामले में आज भी देश में गंभीर स्थिति वाला राज्य है लेकिन स्वास्थ्य जागरूकता के प्रयासों से इतने संकेत तो जरूर मिलते हैं कि राज्य में शिशु मृत्यु दर को रोकने में कुछ हद तक सफलता मिल रही है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here