भोपाल, सितंबर 2013/ जनजातीय संस्कृति और कलाओं का सही मायने में संरक्षण उसके नैसर्गिक स्वरूप को आत्मसात करके ही किया जा सकता है। यह विचार प्रशासन अकादमी में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में वक्ताओं ने व्यक्त किये। दो दिन चलने वाली संगोष्ठी में जनजातीय परम्पराएँ, सामाजिकता, शिक्षा और रोजगार तथा जनजातीय कलाओं का दार्शनिक पक्ष विषय पर भी विषय-विशेषज्ञ अपने विचार प्रस्तुत करेंगे।
शुभारंभ सत्र में जनजातीय संस्कृति और कलाओं का स्वरूप विषय पर वरिष्ठ पत्रकार गिरिजाशंकर ने कहा कि आदिवासियों के जीवन में मानव के साथ प्रकृति भी शामिल है। आदिवासियों के जीवन में संस्कृति मुख्य धारा में है। कृत्रिमता और उसके लगातार व्यावसायिक प्रदर्शन से आदिवासी संस्कृति की जड़े कमजोर हुई हैं।
राष्ट्रीय सम्मान से विभूषित अर्जुन सिंह धुर्वे ने कहा कि आदिवासी कला को समझने के लिए उनके मानस को समझना बेहद जरूरी है। समय के साथ आदिवासी संस्कृति में लगातार बदलाव आ रहे हैं। सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि आदिवासी समाज की युवा पीढ़ी को उनकी संस्कृति के मौलिक स्वरूप के साथ जोड़ा रखा जाये।
वरिष्ठ लेखक एवं आदिवासी संस्कृति के जानकार बंसत निरगुणे ने कहा कि आदिवासियों का जीवन प्रकृति-प्रेम का जीवन है। उनकी कथाएँ मिथ्यापरक नहीं है। बदलते समय के साथ उनकी जीवन शैली को नुकसान पहुँच सकता है, लेकिन उनकी काबलियत को खत्म नहीं किया जा सकता है। आदिम जाति अनुसंधान संस्था (टी.आर.आई.) के संचालक देवेन्द्र सिंघई ने बताया कि मध्यप्रदेश विधानसभा संकल्प-2010 के संकल्प-51 में जनजातीय संस्कृति और भाषाओं के संरक्षण की कार्यवाही की जा रही है। टी.आर.आई. ने जनजातीय मौखिक परम्परा को संरक्षित करने के उद्देश्य से आदिवासी समाज के विभिन्न समूहों में विद्यमान पारम्परिक गीतों, कथाओं, गाथाओं, नाट्य रूपों आदि का दस्तावेजीकरण किया है।