कुछ मामलों में मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कायल हूं और उनमें से एक है उनकी दृढ़ता। उनके मत और विचारों में ज्यादा कोई लाग लपेट नहीं है और इसका उदाहरण उस घटना में साफ दिखाई दिया था जब मंच पर उन्होंने एक खास टोपी पहनने से इनकार कर दिया था। वह घटना उस समय की है जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे लेकिन आज वे देश के प्रधानमंत्री हैं और लोगों की अपेक्षा उनसे यही है कि जिस तरह से उनके कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ है उसी तरह विभिन्न मुद्दों पर उनकी दृढ़ता की भावना का भी विस्तार होना चाहिए। सरकार भले ही भाजपा या एनडीए की हो लेकिन जानी यह ‘मोदी सरकार’ के रूप में ही जाती है। इसलिए मंत्रिमंडल के सदस्यों तक व्यक्तिश: और सामूहिक दोनों रूपों में यह संदेश स्पष्ट होना चाहिए कि या तो हम वाहवाही बटोरने के लिए किए जाने वाले हथकंडों से खुद को पूरी तरह अलग रखें या फिर जो निर्णय कर लिया है उस पर बगैर किसी दबाव के आगे बढ़ें।
हिंदी के उपयोग को लेकर गृह मंत्रालय की ओर से हाल ही में जारी अधिसूचना को लेकर जिस तरह का रवैया सामने आया है वह दुर्भाग्यजनक है। इससे एक बार फिर देश में उन क्षेत्रीय ताकतों को बढ़ावा मिलेगा जो अब तक जाति, संप्रदाय, भाषा आदि के आधार पर देश को ब्लैकमेल करती आई हैं। भारत विभिन्न संस्कृतियों वाला देश है, यह उसकी विशिष्टता भी है और उसकी खूबसूरती भी। अनेकता में एकता की इस खूबसूरती को कई बार अलग अलग रंगों व खुशबुओं से भरे गुलदस्ते के रूप में भी परिभाषित किया जाता है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गुलदस्ता भी तभी बन सकता है जब सारे फूलों को एक साथ बांधा जाए। माला भी तभी बनती है जब वे एक धागे में पिरोई हुई हों। क्या एक धागे में पिरोए जाने के बाद फूल की महक या उसके सौंदर्य में कोई कमी आती है? बिलकुल नहीं, अलबत्ता फूलों की महक और वजन और भी बढ़ जाता है। क्या देश में हिंदी को ऐसे धागे के रूप में नहीं अपनाया जा सकता?
ताज्जुब होता है जब देश के मीडिया का एक वर्ग राष्ट्रीय गर्व से जुड़े विषयों पर भी चलताऊ ढंग से बात करता है। उदाहरण के लिए अर्णब गोस्वामी शुक्रवार (20 जून 2014) की रात ‘टाइम्स नाउ’ पर हिंदी को लेकर गृहमंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना पर बहस करवा रहे थे। उनका तर्क (या कुतर्क) था कि देश में हिन्दी भाषी लोगों की संख्या 45 प्रतिशत है और ऐसे में शेष 55 प्रतिशत लोगों पर हिन्दी कैसी थोपी जा सकती है। उस बहस में कुछ विद्वान (?) ऐसे भी थे जो कह रहे थे अंग्रेजी संपर्क की वैश्विक भाषा है और यह पूरे देश में बोली और समझी जा सकती है। खुद अर्णब गोस्वामी बार बार इस बात पर आपत्ति जता रहे थे कि गृह मंत्रालय की अधिसूचना, अंग्रेजी की कीमत पर हिन्दी को बढ़ावा देने की है। उस बहस में दक्षिण भारत या जम्मू कश्मीर से आए राजनीतिक प्रतिनिधियों का तर्क तो फिर भी इसलिए माना जा सकता है, क्योंकि भाषा का यह मामला केवल और केवल उनकी राजनीतिक दुकानदारी से जुड़ा है। लेकिन शर्म की बात तो यह थी कि उत्तरप्रदेश जैसे घोर हिन्दी भाषी राज्य से आने वाली कांग्रेस की रीता बहुगुणा, समाजवादी पार्टी के गौरव भाटिया तथा पत्रकार शाहिद सिद्दीकी भी हिंदी के पक्ष में बात करने के बजाय सरकार के कदम की अपने अपने कारणों से आलोचना कर रहे थे। भाजपा के नलिन कोहली ने पूरी ताकत से सरकार का बचाव करने की कोशिश की लेकिन कार्यक्रम को शायद बनाया ही हिन्दी विरोध के लिहाज से गया था, इसलिए बार बार कोहली की आवाज को दबाने की कोशिश हुई। उस बहस की सबसे अहम और महत्वपूर्ण बात यह रही कि केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू हिन्दी का बचाव कर रहे थे। वही रिजिजू जिन्होंने बहुत स्पष्ट उच्चारण के साथ हिन्दी में ही पद और गोपनीयता की शपथ ली थी और जो स्वयं अहिन्दी भाषी राज्य अरुणाचल से आते हैं, जहां की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है।
दरअसल देश में केवल राजनीतिक या क्षेत्रीय कारणों से हिन्दी का विरोध करने वालों को इस बात से सबक लेना चाहिए कि जब एक अहिन्दी भाषी राज्य गुजरात से आने वाले नरेंद्र मोदी अपना पूरा चुनाव प्रचार अभियान हिन्दी में करके इस देश की राजनीति की धारा बदलकर प्रधानमंत्री बन सकते हैं, तो क्या यह देश में हिन्दी का प्रभाव, उसकी समझ, उसकी पकड़ या उसकी ताकत का परिचायक नहीं है?
बहस में कुछ लोगों ने बहुत ही घटिया अंदाज में हिन्दी को साम्राज्यवादी तक बता दिया। अर्णब गोस्वामी ने 1949 में टी.टी. कृष्णमाचारी द्वारा संविधान सभा में व्यक्त की गई उस राय का हवाला दिया जिसमें कृष्णमाचारी ने चेतावनी दी थी कि हिन्दी के ‘साम्राज्यवादी विस्तार’ से बचा जाना चाहिए, यह देश के दक्षिणी राज्यों को साथ लेकर चलने में बाधक बनेगा। लेकिन अर्णब गोस्वामी शंकर घोष की लिखी उसी किताब ‘जवाहरलाल नेहरू ए बायोग्राफी’ के उसी पेज नंबर 217 को सिर्फ एक पैरा नीचे जाकर पढ़ने की जहमत नहीं उठा सके जिसमें घोष एक घटना का हवाला देते हुए लिखते हैं कि- ‘’आजादी के बाद महात्मा गांधी ने कहा कि अब हम स्वतंत्र हैं और मैं अब अंग्रेजी में बात नहीं करूंगा। आप सभी को राष्ट्रभाषा (हिन्दुस्तानी) समझनी होगी। 1948 में गांधीजी ने दिल्ली में आयोजित राज्यों के खाद्य मंत्रियों के अधिवेशन को संबोधित करते हुए अपना भाषण हिन्दी में दिया। जब दक्षिण भारत से आए एक मंत्री ने गांधीजी से कहा कि उन्हें उनका हिन्दी में दिया गया भाषण समझ में नहीं आया, तो गांधीजी ने पलटकर जवाब दिया- तब तो बेहतर होगा कि आप मंत्री पद से इस्तीफा दे दें। इस पर उस मंत्री ने गांधीजी से हाथ जोड़कर वादा किया कि वे छह माह में हिन्दी सीख लेंगे।‘’ संयोग से वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उसी गुजरात से आते हैं जहां से महात्मा गांधी आते थे। इसलिए हिन्दी के मामले में मोदी सरकार से अपेक्षा और बढ़ जाती है।
दरअसल देश के कुछ नासमझ मीडियाकर्मियों के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि 1949 से लेकर 2014 तक बहुत पानी गुजर चुका है। अब न तो हिन्दी वैसी दीनहीन रही है और न ही उसे ऐसे किसी टुच्चे विरोध से कोई फर्क पड़ता है। हर बार हिन्दी की वकालत को अंग्रेजी के विरोध से जोड़े जाने का भी फैशन चल गया है। सवाल अंग्रेजी को हटाने या उसे न सीखने का नहीं है, सवाल अंग्रेजी या अंग्रेजियत वाली मानसिक गुलामी से बाहर आने का है। दरअसल हमें गोरे रंग और बाजार की चमक ने इतना नपुंसक बना दिया है कि अपनी मां को मां और पिता को पिता कहने में भी हमें शर्म आती है। लेकिन ऐसी गुलाम मानसिकता वालों को यह जान लेना जरूरी है कि जिस एक नारे ने इस बार देश की राजनीति को पलट दिया वह नारा -अच्छे दिन आने वाले हैं- भी हिन्दी में ही था। सिर्फ साढ़े नौ अक्षरों वाला यह नारा यदि देश की राजनीति को पलट सकता है तो जरा सोचिए कि यदि पूरी हिन्दी वर्णमाला आ गई तो क्या होगा? शायद हिन्दी विरोधियों को खतरा भी यही है। चुनाव प्रचार में भाजपा द्वारा अपनाया गया यह नारा हिन्दी विरोधियों के लिए ही नहीं बल्कि खुद मोदी सरकार के लिए भी आंखें खोलने वाला होना चाहिए। आप जिस हिन्दी नारे और हिन्दी भाषणों के सहारे सत्ता के शिखर तक पहुंचे हैं वहां यदि हिन्दी को लेकर कोई फैसला करते हैं तो पूरी ताकत से करिए। उसमें यह बहाना मत खोजिए कि यह तो पुरानी सरकार की अधिसूचना थी, या ऐसी अधिसूचनाएं तो हर साल निकलती हैं। यदि आप हिन्दी को लेकर कोई कदम उठा रहे हैं तो डर या संकोच के साथ नहीं उसी दृढ़ता से उठाइए जिस दृढ़ता से आपने एक खास किस्म की टोपी पहनने से इनकार कर दिया था। गृह मंत्रालय की ओर से जारी अधिसूचना कोई राष्ट्रीय शर्म का विषय नहीं है और न ही इस पर किसी को कोई सफाई देने की जरूरत है। जरा हिम्मत तो दिखाइए… यदि आप फैसला कर लें कि मीडिया से हिन्दी में ही बात करेंगे तो झक मारकर अर्णब गोस्वामी जैसे लोगों को भी अंग्रेजी का टाई सूट उतारकर हिन्दी में ही बात करनी होगी और यदि हिन्दी नहीं आती तो सीखनी होगी। यदि ऐसे लोग यह तर्क देते हैं कि देश में हिन्दी केवल 45 प्रतिशत लोग ही बोलते हैं तो उन्हें सीना ठोककर यह बताइए कि इस देश में जब 31 प्रतिशत वोट पाकर अपने बूते पर सरकार बनाई जा सकती है, तो 45 प्रतिशत का आंकड़ा तो उससे बहुत ज्यादा हैं। और हां, 45 प्रतिशत का आंकड़ा देने वालों से पलटकर यह जरूर पूछिए कि बाबू आप जिस अंग्रेजी में हिन्दी की चिन्दी करने पर तुले हैं उसे बोलने वालों का प्रतिशत देश में कितना है? हिन्दी आज इस देश में जितने लोगों को रोजगार दे रही है, अंग्रेजी की क्षमता तो उसके पासंग भर भी नहीं है। रोजी रोटी के लिए अंग्रेजी जानने की मजबूरी देश में अधिक से अधिक 10 प्रतिशत लोगों के लिए हो सकती है बाकी 90 प्रतिशत तो भारतीय भाषाओं से ही काम चलाते हैं। और इन भारतीय भाषाओं में केवल हिन्दी ही ऐसी है जिसे थोड़ा बहुत जानने या समझने वाले तो देश के हर कोने में मिल जाएंगे, वहां भी जहां से इसके विरोध के स्वर अक्सर उठाए जाते हैं।
गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने हिन्दी को लेकर उठे विवाद के बाद स्पष्टीकरण दिया है कि गृह मंत्रालय के अफसरों से केवल यह कहा गया है कि सोशल मीडिया जैसे फेसबुक और ट्विटर पर वे अंग्रेजी के साथ साथ हिन्दी में भी सूचनाएं डालें। रिजिजू के अनुसार ऐसा बहुसंख्य हिन्दी भाषी लोगों की सुविधा को देखते हुए कहा गया है। इसमें अन्य भाषा व्यवहार वाले राज्यों पर हिन्दी थोपने जैसी कोई बात ही नहीं है। रिजिजू के इस बयान के बाद भी मामला थमा नहीं है और कुछ कुतर्की लोगों ने यह बात उछाल दी है कि फिर तो सभी 22 आधिकारिक भाषाओं में फेसबुक या ट्विटर पर टिप्पणियां/सूचनाएं डलनी चाहिए। ऐसा होना चाहिए या नहीं, ऐसा हो सकता है या नहीं यह अलग बहस का मुद्दा है लेकिन यदि हिन्दी में ऐसा करने को लेकर कोई पहल हुई है तो उसका इस तरह विरोध क्यों होना चाहिए?
हिन्दी का यह दुर्भाग्य की कहा जाएगा कि वह उस मां की तरह है जिसका बेटा दूध तो उसका पीकर बड़ा होता है लेकिन हिमायत पड़ोसी की मां की करता है। जब भी हिन्दी को लेकर कोई बात उठती है, अहिन्दी भाषी राज्यों से उसके विरोध में एकजुट स्वर उठ जाता है, वहीं दूसरी ओर हिन्दी भाषी राज्यों के राजनेता शर्मनाक चुप्पी साधे रहते हैं। दरअसल हिन्दी हो या दक्षिणी राज्यों की अन्य प्राचीन भाषाएं, इन सभी का उत्स संस्कृत से ही हुआ है। संस्कृत ही उनकी जननी है। इस लिहाज से हिन्दी तो तमिल, तेलुगू, मलयालम या कन्नड़ जैसी भाषाओं की सौत नहीं बल्कि बहन हुई। इन भाषाओं में बहनापा बढ़ाने का प्रयास होना चाहिए न कि उनमें वैमनस्य पैदा करने का। हमारा मकसद हिन्दी या भाषा को लेकर देश में बिखराव या टकराव पैदा करना नहीं है, लेकिन जिस तरह अहिन्दी भाषी राज्य अपनी भाषाओं को लेकर आग्रही होते हैं उसी तरह हिन्दी भाषी राज्यों के प्रतिनिधियों को भी अपनी भाषा के बारे में बात तो करनी ही चाहिए। जब भी ऐसा मौका आता है वे या तो शुतुरमुर्ग की तरह सिर छिपा लेते हैं या फिर रीता बहुगुणा की तरह राजनीतिक कारणों से उन अंग्रेजीदां लोगों के सुर में सुर मिलाने लगते हैं जिनका मसकद ही भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी मानसिकता थोपे रखना है।
अंत में एक बात और, यदि हमने उस दृढ़ता का परिचय नहीं दिया, जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है तो एक दिन यह मांग भी उठ सकती है कि राष्ट्रगान भी देश की 22 अलग अलग भाषाओं में गाया जाना चाहिए। क्या ऐसा संभव होगा? क्या ऐसी मांग उचित है? जरा सोचिए…